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डाकिया डाक लाया, डाकिया डाक लाया
ख़ुशी का पयाम कहीं, कहीं दर्दनाक लाया
डाकिया डाक लाया
अब आप सोचेंगे की सरल मोबाइल सन्देश के इस ज़माने में यह कौन कम अकल आ गया है जो डाकिये की तलाश कर रहा है. अजी क्या बताएं अब, बड़ा ही बदनसीब बेचारा है, अभी थोड़ी देर पहले टीवी पर ऊपर लिखे गाने को सुन कर सोच में पड़ गया की आखिरी बार कब किसी डाकिये ने मेरे लिए कोई सन्देश लाया था.
जहाँ तक याद पड़ता है, २००४ में मैंने पहला मोबाइल फ़ोन ख़रीदा था, उसके बाद तो न खुद किसी को चिट्ठी लिखी और ना ही कभी किसी की चिट्ठी आई. अब हम तो लैंड लाइन जमाने में पैदा हो कर मोबाइल युग में बड़े हुए. जहां आज कल के पिया खतों खतूत करने की जगह ज्यादातर रंगून जाकर अपनी प्रेमिका को टेलीफून करते हैं. चिट्ठियां तो वेब १.० वाली बात हो गयी या फिर गुमशुदागंज वाले मामाजी की भाषा में कहें तो.. “चिट्ठियां तो पिताजी लिखा कर थे”.
सचमुच चिट्ठियां तो पिताजी लिखा करते थे और एक शिक्षक होने के नाते हमें सिखाते भी थे, की ऐसे लिखो, वैसे लिखो, यह मत लिखो, वो मत लिखे. हमने सिखा तो जरूर पर यह ज्ञान बहुत कम ही इस्तेमाल किया. बचपन के पत्र ज्यादातर परीक्षावों तक ही सीमित रहे.
बचपन में किताबों कहानियों में पत्र-मित्र के बारे में काफी पढ़ा सुना था, सोचा था आगे जाकर हम भी कभी पत्र मित्रता करेंगे. पर जब पत्र मित्र बनाने का मौका मिला तब तक पत्र-मित्र chat-friends में बादल चुके थे. यह एक मौका भी हाथ से गया.
वैसे २-४ पत्र तो हमने लिखे ही थे, स्कूल से निकले फिर कॉलेज गए तो अपने एक पुराने साथी से पत्राचार के जरिये संपर्क बनाये रखा, मगर बकरे की अम्मा कब तक खैर मानती, इन पत्रों पर भी एक दिन मोबाइल की गाज गिर ही गयी. अभी भी रखें हैं वोह पत्र, अलमारी के किसी कोने में शो पीस बन कर.
अब सामान्य पत्रों से परे जाकर प्रेम पत्रों की बात करें | बहुत मन था की कभी किसी से प्रेम हो और उसको पत्र लिखूं. एक ख़ूबसूरत से फूलदार रंगीन कागज़ पर एक रूमानी सी दास्ताँ लिखूं, कुछ चोरी के शेर लिखूं, कुछ फिल्मों के गीत लिखूं. कभी उसको मेहरबान लिखूं , कद्रदान लिखूं, हसीना लिखूं, दिलरुबा भी लिखूं (तो क्या हुआ अगर अगर आखीरी पंक्तियाँ ‘संगम’ फिल्म के एक गाने से चुरायी गयीं हैं ), और फिर उसमे खुशबू डाल कर पोस्ट करून. अब ना प्रेम हुआ ना प्रेम पाती का मौका आया. जब प्रेम की पींगे लड़ाने की सोच रहे थे तो मम्मी पापा ने शादी करा दी.
मरता क्या ना करता, सोचा की चलो अपनी जीवन संगिनी को ही एक प्रेम पत्र लिख मारूं. खूब जोर शोर से, दम ख़म लगा कर लिखा भी. मगर… मगर भेजना भूल गया, और विडम्बना यह की शादी के पहले लिखा ख़त उनको शादी की पहली साल गिरह को पढ़ कर सुनाया.
अब यह था मेरा पहला प्रेम पत्र, और आखिरी ख़त, जो अपनी अंजाम तक पहुँच ना सका. और अब यह आलम है की आजू बाजू ना कलम दिखाई देते है और ना ही कोई कागज़ के टुकड़े. नोटबुक की जगह notepad आ चूका है और दिल को दिलासा देने के लिए कभी कभार इ-पत्र (अरे email भाई साहब ) ही लिख लिया करते हैं.
डाकिया बाबु भी अपना रूप बदल चुके हैं. आते तो हैं हर महीने मगर, किसी का पैगाम नहीं लेकर बल्कि क्रेडिट कार्ड का बिल लेकर.
मगर फिर भी दिल में एक उम्मीद रहती है, की कभी ना कभी, कोई ना कोई, गलती से ही सही, एक पत्र तो डालेगा ही. अगर आपका मन कर रहा हो तो पता लिखे दे रहा हूँ.
अन्थोनी गोंजाल्वेस
रूप महल, प्रेम गली
खोली नंबर ४२०
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